नई दिल्ली : उषस्ति ने कहा, ‘यदि मैं उड़द नहीं खाता, तो मेरे प्राण निकल जाते। इसलिए मैंने जूठे उड़द खा लिए। लेकिन पीने के लिए स्वच्छ जल मिल ही जाएगा। इसलिए अब तुम्हारा जूठा पीने से मुझे दोष लगेगा।’
एक समय की बात है, जब कुरुदेश में बड़ी भयंकर ओला-वृष्टि हुई। राज्य की फसलें नष्ट हो गईं, वनस्पति को भारी क्षति हुई और प्रदेश में भयानक अकाल पड़ गया। भूख से पीड़ित प्रजा प्रदेश छोड़कर जाने लगी। उसी राज्य में उषस्ति नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी स्त्री का नाम आटिकी था। उषस्ति ने आटिकी के साथ राज्य छोड़ दिया। दोनों घूमते हुए एक गांव में पहुंचे। उषस्ति और आटिकी ने कई दिनों से कुछ खाया नहीं था। भूख के मारे दोनों का बुरा हाल था। उषस्ति की दशा ज्यादा खराब थी। उसे पता था, यदि उसे कुछ और समय भोजन नहीं मिला, तो निश्चित रूप से उसके प्राण निकल जाएंगे।
इसी बीच एक घर के सामने से गुजरते हुए उषस्ति ने देखा कि अंदर बैठा व्यक्ति उड़द खा रहा है। उषस्ति से रहा नहीं गया। वह घर के अंदर गया और उस व्यक्ति से थोड़ा उड़द देने को कहा। वह व्यक्ति बोला, ‘आप ब्राह्मण हैं। मैं कुछ उड़द खा चुका हूं, इसलिए ये जूठे हो गए हैं। मेरे पास आपके लिए बिना जूठा उड़द नहीं हैं।’
उषस्ति बोले, ‘कोई बात नहीं। तुम यही उड़द मुझे दे दो।’ उस व्यक्ति ने उषस्ति को थोड़े-से उड़द दे दिए। उषस्ति ने झटपट उड़द खा लिए। फिर जब उस व्यक्ति ने पीने के लिए पानी दिया, तो उषस्ति ने पानी पीने से मना कर दिया और कहा, ‘मैं यह जल नहीं पी सकता, क्योंकि मुझे उच्छिष्ट-पान का दोष लग जाएगा।’
उस व्यक्ति को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ‘ब्राह्मण देवता, आपने मेरे जूठे उड़द तो खा लिए, फिर जूठा जल पीने में क्या आपत्ति है?’
उषस्ति ने कहा, ‘यदि मैं उड़द नहीं खाता, तो मेरे प्राण निकल जाते। प्राणों की रक्षा के लिए उपाय करना आपद्धर्म कहलाता है। आपद्धर्म में किसी तरह का दोष नहीं लगता। लेकिन अब मेरे प्राणों पर कोई संकट नहीं है। मुझे पीने के लिए स्वच्छ जल मिल ही जाएगा। इसलिए अब तुम्हारा जूठा पीने से मुझे दोष लगेगा।’ यह कहकर उषस्ति ने अपनी पत्नी को भी थोड़े-से उड़द दिए। आटिकी ने कुछ दाने खाकर अपनी भूख मिटाई और बचे हुए उड़द वस्त्र में बांधकर रख लिए।
अगले दिन उषस्ति ने पत्नी से कहा, ‘मुझे पता लगा है कि इस राज्य का राजा यज्ञ कर रहा है और उसे ऋत्विज की जरूरत है। यदि राजा के पास जाऊं, तो शायद मुझे यज्ञ में कोई कार्य अवश्य मिल जाए, जिससे हमें थोड़ा धन प्राप्त होगा और हमारी स्थिति सुधर जाएगी।’
आटिकी ने तुरंत पिछले दिन के बचे हुए उड़द उषस्ति को दिए। उषस्ति उड़द खाकर राजा के यज्ञ में चला गया। वहां उपस्थित अन्य ब्राह्मणों को यज्ञ-कर्म में कुछ भूल करते देखा, तो उषस्ति ने टोकते हुए कहा, ‘क्या आपको पता है, आप जिन देवता की स्तुति कर रहे हैं, वे कौन हैं? यदि अधिष्ठाता को जाने बिना स्तुति करेंगे, तो यज्ञ निष्फल हो जाएगा।’ यह सुनकर सभी ऋत्विज उषस्ति की प्रशंसा करने लगे। राजा ने उषस्ति की बात सुनी, तो पूछा, ‘हे ब्राह्मण! आप कौन हैं? अपना परिचय दीजिए।’
उषस्ति ने कहा, ‘महाराज! मैं चक्र का पुत्र उषस्ति हूं।’ राजा ने तुरंत नाम से पहचान लिया और हर्षित होकर कहा, ‘आप ही उषस्ति हैं? मैंने आपका बहुत यश सुना है। मैंने यज्ञ आरंभ करने से पूर्व कुरुदेश में आपकी बहुत खोज की, किंतु आप प्रदेश छोड़कर जा चुके थे। इसलिए मुझे इस कार्य के लिए अन्य ऋत्विजों को बुलाना पड़ा। मेरा सौभाग्य है कि आप स्वयं यहां पधारे हैं। अब इस यज्ञ का समस्त कार्य आप ही संभालिए और इसे संपन्न कीजिए।’
उषस्ति ने कहा, ‘महाराज! मैं यज्ञ तो कर दूंगा, परंतु आप इन ऋत्विजों को यज्ञ कार्य से मत हटाइए। मैं चाहता हूं कि ये लोग मेरे साथ मिलकर इस यज्ञ को संपन्न करवाएं और इन्हें भी मेरे बराबर ही दक्षिणा मिले।’
उषस्ति के स्नेहपूर्ण वचन सुनकर अन्य ऋत्विज प्रसन्न हुए और सबने मिलकर राजा का यज्ञ संपन्न करवा दिया।